Pradeep
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लफ्ज रुकते नहीं लबों पर,
आज ग़ज़ल होने तक,
इक उम्र गुजर जाती हैं,
तेरी यादों में कल होने तक.
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ये बुतों कि महफ़िल हैं,
पत्थरो के शहर में,
इंसान तो जिन्दा थे,
जज्बात-ए-कतल होने तक.
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डूबती कश्ती के मुसाफिर हो तुम भी,
बेमानी के दलदल में,
गैरत तो जिन्दा थी,
उसूलो के अमल होने तक.
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वो वक़्त ही और था,
ताउम्र तेरी परश्तिश का,
इश्क आज जिन्दा हैं तो,
इक हूर-ए-शकल होने तक.
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हुनर के बस में नहीं,
ये ताकतों का मुद्दा हैं,
तू उठेगा ऊँचा,
बस एक नसल होने तक.
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